कबीर पंथ
क्या है कबीर पंथ
कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे. वह हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग के प्रवर्तक थे. निर्गुट विचारधारा को मानते थे. उनकी रचनाओं का काफी असर पड़ा. कबीर के शिष्यों ने फिर उनकी विचारधारा पर एक पंथ की शुरुआत की, जिसे कबीर पंथ कहा जाता है. माना जाता है कि देशभर में करीब एक करोड़ लोग इस पंथ से जुड़े हुए हैं. हालांकि ये पंथ भी अब कई धाराओं में बंट चुका है.
संत कबीर ने अपने विचार फैलाने का जिम्मा चार प्रमुख शिष्यों को दिया. ये चारों शिष्य 'चतुर्भुज', 'बंके जी', 'सहते जी' और 'धर्मदास' थे, जो देशभर में चारों ओर गए ताकि कबीर की बातों को फैलाकर एक अलग तरह का समाज बनाया जा रहा है. हालांकि उनके पहले तीन शिष्यों के बारे में कोई बहुत ज्यादा विवरण नहीं मिलता. हां, चौथे शिष्य धर्मदास ने कबीर पंथ की 'धर्मदासी' अथवा 'छत्तीसगढ़ी' शाखा की स्थापना की थी, जो इस समय देशभर में सबसे मजबूत कबीर पंथी शाखा भी है. यह भी माना जाता है कि कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनके निधन के लगभग सौ साल बाद इस पंथ की शुरुआत की थी.
कौन सी शाखा सबसे बड़ी है :-
कबीरपंथ की अन्य शाखाओं की तुलना में छत्तीसगढ़ी शाखा सबसे ज्यादा फैली हुई है और इसे मानने वाले भी सबसे ज्यादा है. छत्तीसगढ़ी शाखा की उपशाखाएँ मांडला, दामाखेड़ा, छतरपुर आदि जगहों पर हैं.
कबीर पंथ में कबीर को किस तरह माना गया:-
कबीरपंथी संस्थाओं ने कबीर को लेकर कई तरह की पौराणिक कथाएं गढ़ी. इससे उन्होंने कबीर को अलौकिक रूप दे दिया गया. साथ ही उन्होंने संसार की सृष्टि, विनाश, विभिन्न लोकों जैसी कल्पनाएं भी अपने ग्रंथों और साहित्य में की गईं. इनमें से ज्यादातर काम छत्तीसगढी शाखा ने अनुयायियों ने किया.
क्या हैं कबीर पंथ के ग्रंथ
कबीर पंथ की छत्तीसगढी शाखा ने कबीर पर कई ग्रंथों और रचनाओं का निर्माण किया. हालांकि इससे कबीर ने असल जो कहा था, वो मूलरूप से गायब हो गया. परिणामस्वरूप ये पंथ भी संप्रदायवाद, कर्मकांड और अन्य आडंबरों में बंधकर रह गया.
कबीरचौरा में क्या है
माना जाता है कि वाराणसी से कबीरचौरा में ही कबीर रहते थे और वो यहीं अपनी बातें कहते थे. लिहाजा ये कबीर का प्रमुख धर्मस्थान भी है. यहां एक मठ और कबीरदास का मन्दिर है, जिसमें उनका चित्र रखा हुआ है. दूर दूर से लोग उनके दर्शन के लिए यहां आते हैं.
कबीर पंथ में एकेश्वरवाद क्या है
कबीरदास ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिखे. वो केवल मुंह से बोलते थे. उनके भजनों और उपदेशों को शिष्यों ने लिपिबद्ध किया. ये रामनाम की महिमा गाते थे, एक ही ईश्वर (एकेश्वरवाद) को मानते थे. कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे. अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मन्दिर को नहीं मानते थे. वो उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मा को मानते थे. साफ़ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है, चाहे उसे राम कहो या अल्ला.
मेले का आयोजन

कबीर पंथियों द्वारा समय-समय पर मेले का आयोजन किया जाता है. इन मौकों पर कबीर-पंथी आचार्य प्रवचन करते हैं. कबीर के उपदेशों का प्रचार करते हैं. छत्तीसगढ़ में कई जगह ऐसे कई बड़े मेले लगते हैं.
कैसे होती है प्रार्थना
कबीर-पंथ में प्रार्थना को बंदगी कहते है, इसका काफी महत्व है. इसके लिए समय निर्धारित रहता है. सुबह और फिर रात में भोजन के बाद बंदगी की जाती है. कबीर पंथी मानव शरीर को पंचतत्वों से बना मानते हैं. लिहाजा ये पंच तत्वों से विजय प्राप्त करने के लिए पांच बार बंदगी करना जरूरी मानते हैं.
दीक्षा, व्रत, उत्सव -
कबीर-पंथ में दीक्षा की प्रथा आज भी है जिसे "बरु' या कण्ठी धारणा करते हैं. महंत साहब के शिष्यगण तुलसी के डण्ठल से कण्ठी बनाते हैं. दीक्षा के लिए एक उत्सव का आयोजन किया जाता है, जिसमें घरवाले अपने परिचितों को आमंत्रित करते हैं. गुरु (महंत) साहब उस कण्ठी को शिष्य के कण्ठ में बांधकर दीक्षा देते है. पूर्णिमा के व्रत का महत्व सबसे अधिक है.
मगहर का महत्व क्यों ज्यादा है

कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं. अपनी मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए, क्योंकि लोगों में मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है.मगहर में उन्होंने अंतिम साँस ली. आज भी वहां उनकी मजार और समाधि है
कबीर के विचार क्या थे वो हिंदू और इस्लाम दोनों के आलोचक थे. उन्होंने यज्ञोपवीत और ख़तना को बेमतलब क़रार दिया. हालांकि उनकी बातों से उस समय हिंदू और मुसलमानों में काफी नाराजगी भी फैली. उन्हें कई बार धमकियां मिलीं.
कितने लोग हैं कबीर पंथी
माना जाता है कि देश में कुल 96 लाख लोग कबीर पंथी हैं. इनमें मुसलमान कम और हिन्दू बड़ी संख्या में हैं. साथ ही बौद्ध और जैन समेत कई अन्य धर्मों के लोग भी. कबीरपंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति पूज्य भाव रखते हैं. गुरु को सबसे ऊपर मानते हैं. शुरू में दार्शनिक और नैतिक शिक्षा पर आधारित यह पंथ बाद में जाकर धार्मिक संप्रदाय में बदल गया. कबीर पंथ की कितनी शाखाएं कबीरपंथ दो प्रमुख शाखाएं बताई गई हैं. पहली शाखा का केंद्र 'कबीरचौरा' (काशी) है. जिसकी एक उपशाखा मगहर में है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गए. दूसरा बड़ा केंद्र छत्तीसगढ़ के तहत आता है, जिसकी स्थापना धर्मदास ने की थी. हालांकि इनकी भी कई शाखाएं और उपशाखाएं बताई गई हैं. बाद में छत्तीसगढ़ी शाखा भी कई शाखाओं में बंट गई. जिसमें कबीरचौरा जगदीशपुरी, हरकेसर मठ, कबीर-निर्णय-मंदिर (बुरहानपुर) और लक्ष्मीपुर मठ शामिल है. कहां किसने शुरू किया कबीर पंथ - गुजरात में प्रचलित रामकबीर पंथ के प्रवर्तक कबीर शिष्य 'पद्मनाभ' तथा पटना में 'फतुहा मठ' के प्रवर्तक तत्वाजीवा अथवा गणेशदास बताए जाते हैं - मुजफ्फरपुर में कबीरपंथ की बिद्दूरपुर मठवाली शाखा की स्थापना कबीर के शिष्य जागूदास ने की थी. - बिहार में सारन ज़िले में धनौती में स्थापित भगताही शाखा को कबीर शिष्य भागोदास ने शुरू किया था. भगताही शाखा में भक्ति भावना ही प्रधान है, न कि ब्राह्योपचार. - कबीरचौरा शाखा कबीर के शिष्य सुरतगोपाल ने शुरू की थी और ये सबसे पुरानी मानी जाती है. हालांकि कुछ लोग इस पर संदेह भी जाहिर करते हैं. इसकी उपशाखाएं बस्ती के मगहर, काशी के लहरतारा और गया के कबीरबाग में हैं. | |||||||||||||
अन्य धार्मिक सम्प्रदाय की तरह कबीर पंथ के भी अपने आचार-विचार और विधि विधान प्रचलित हैं। यद्यपि छत्तीसगढ़ में कोई मौलिकता नहीं है, बल्कि देश के अन्य भागों में प्रचलित रीति-नीतियों का ही पालन छत्तीसगढ़ के कबीर पंथी करते हैं।
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मेले का आयोजन
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कबीर पंथियों द्वारा समय-समय पर मेले का आयोजन किया जाता है। इन अवसरों पर कबीर-पंथी आचार्य प्रवचन करते हैं और कबीर के उपदेशों का प्रचार करते हैं।
छत्तीसगढ़ के निम्नलिखित स्थानों में बहुचर्चित मेलों का आयोजन होते हैं -
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बंदगी
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कबीर-पंथ में बंदगी का बड़ा महत्व है। कबीर-पंथ में बंदगी के लिए समय भी निर्धारित कर दिया गया है। प्रात: काल शैया से उठते समय फिर नित्य कर्म से निवृत होकर और अंत में भोजनोपरांत बंदगी की जाती है। कबीर पंथी मानव शरीर को पंचतत्वों से निर्मित मानते हैं। ये पंच तत्वों से विजय प्राप्त करने के लिए पांच बार बंदगी करना अत्यंत आवश्यक समझते हैं।
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दीक्षा, व्रत, उत्सव -
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कबीर-पंथ में दीक्षा की प्रथा आज भी है जिसे "बरु' या कण्ठी धारणा करते हैं। महंत साहब के शिष्यगण तुलसी के डण्ठल से कण्ठी बनाते हैं। दीक्षा के लिए एक उत्सव का आयोजन किया जाता है, जिसमें घर वाले अपने समस्त मित्रों व सज्जनों को आमंत्रित करते हैं। गुरु (महंत) साहब उस कण्ठी को शिष्य के कण्ठ में बांधकर दीक्षा देते हैं।
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व्रतों और उत्सवों का भी कबीर-पंथ में समान महत्व है। समस्त व्रतों में पूर्णिमा के व्रत का महत्व सबसे अधिक है। इस दिन प्रत्येक कबीर पंथी सात्विक जीवन व्यतीत करने का संकल्प करते हैं।
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चौका विधान -
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कबीर पंथियों में चौका विधान एक प्रमुख प्रक्रिया है, जिसे कबीर-पंथ के महंत संपन्न करते हैं। कबीर पंथी यह मानते हैं कि चौका विधान से मोक्ष संभव है। इसके चार प्रकार हैं -
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चौका विधान का महत्व -
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कबीर पंथ में चौका विधान को त्रिदोप नाशक माना गया है। इन दोषों का नाश, कर्म, उपासना और ज्ञान से किया जा सकता है।
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